Sunday 17 April 2016

नदी, स्त्री और गीत - राकेश रोहित

उसने माथे पर छिड़का नदी का जल
और नदी में पांव डाल कर बैठ गयी
धीरे- धीरे उसके पैर से फूटने लगी जड़ें
मैंने धरती की सबसे सुंदर नदी को
स्त्री के रूप में देखा
उसकी आंखों में भयावह एकांत की स्मृतियाँ थीं
वह पीड़ा का गीत गा रही थी!

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (18-04-2016) को "वामअंग फरकन लगे " (चर्चा अंक-2316) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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