Friday 8 August 2014

बहते जल में परछाई - राकेश रोहित

बहते जल में
नहीं बह जाती है मेरी परछाई!
जो मेरी जिद है
कविता में
हर वक्त बची रहती है।

1 comment:

  1. परछाइयाँ असल चेहरे को छिपाती हैं/ पर शक्ल फिर भी नज़र आ ही जाते हैं/ ज़ज्ब कर लेता है हर रुप रंग नील जल/पर जरा से हिलने से स्निग्धता छलक ही जाती है/खूबसूरत न होती यह दुनियां / तो ईश्वर कब का मर गया होता !

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